- नेता जी सुभाष के जन्म दिवस पर उन्हें शत शंत नमन ...!! व सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं !1931 में कांग अध्यक्ष बने नेताजी, गाँधी का नेहरु प्रेम आड़े न आता;तो देश का बंटवारा न होता, कश्मीर समस्या न होती, भ्रष्टाचार न होता,देश समस्याओं का भंडार नहीं, विपुल सम्पदा का भंडार होता(स्विस में नहीं)!-- तिलक संपादक युग दर्पण
- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बांग्ला: সুভাষ চন্দ্র বসু शुभाष चॉन्द्रो बोशु) (23 जनवरी 1897 - 18 अगस्त, 1945 विवादित) जो नेताजी नाम से भी जाने जाते हैं, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय, अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा, भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं।1944 में अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर से बात करते हुए, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना बडा था कि कहा जाता हैं कि यदि उस समय नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत एक संघ राष्ट्र बना रहता और भारत का विभाजन न होता। स्वयं गाँधीजी ने इस बात को स्वीकार किया था।[अनुक्रम 1 जन्म और कौटुंबिक जीवन, 2 स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य, 3 कारावास, 4 यूरोप प्रवास, 5 हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्षप, 6 कांग्रेस के अध्यक्षपद से इस्तीफा, 7 फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना, 8 नजरकैद से पलायन, 9 नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात, 10 पूर्व एशिया में अभियान, 11 लापता होना और मृत्यु की खबर 11.1 टिप्पणी, 12 सन्दर्भ, 13 बाहरी कड़ियाँ,]जन्म और कौटुंबिक जीवननेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। कटक शहर के प्रसिद्द वकील जानकीनाथ बोस व कोलकाता के एक कुलीन दत्त परिवार से आइ प्रभावती की 6 बेटियाँ और 8 बेटे कुल मिलाकर 14 संतानें थी। जानकीनाथ बोस पहले सरकारी वकील बाद में निजी तथा कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया व बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे।।स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्यकोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी, देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम मुम्बई गये और मणिभवन में 20 जुलाई, 1921 को महात्मा गाँधी से मिले। कोलकाता जाकर दासबाबू से मिले उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। दासबाबू उन दिनों अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध गाँधीजी के असहयोग आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए,कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का ढंग ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को उत्तर देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम 8 सदस्यीय आयोग को सौंपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। किन्तु सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराजकी मांग से पीछे हटना स्वीकार नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, 1 वर्ष का समय दिया जाए। यदि 1 वर्ष में अंग्रेज़ सरकार ने यह मॉंग पूरी नहीं की, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज़ सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए 1930 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जब लाहौर में हुआ, तब निश्चित किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा।26 जनवरी, 1931 के दिन कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझोता किया और सब कैदीयों को रिहा किया गया। किन्तु अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा करने से माना कर दिया। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझोता तोड दे। किन्तु गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोडने को राजी नहीं थे। भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए, गाँधीजी ने सरकार से बात की। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के नीतिओं से बहुत रुष्ट हो गए।कारावासअपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 1921में 6 माह का कारावास हुआ।1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधिक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने भूल से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फॉंसी की सजा दी गयी। गोपिनाथ को फॉंसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव मॉंगकर उसका अंतिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष किया कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न केवल ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों का स्फूर्तीस्थान हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित कालखंड के लिए म्यानमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।5 नवंबर, 1925 के दिन, देशबंधू चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसें। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की सूचना मंडाले कारागृह में रेडियो पर सुनी।मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। उन्हें तपेदिक हो गया। परंतू अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से मना कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे चिकित्सा के लिए यूरोप चले जाए। किन्तु सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि चिकित्सा के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। अन्त में परिस्थिती इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यू हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू चिकित्सा के लिए डलहौजी चले गए।यूरोप प्रवासजब सुभाषबाबू यूरोप में थे, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया।बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिस में उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत गहरी निंदा की। बाद में विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। किन्तु विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया।विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। किन्तु उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उसपर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जितकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वह संपत्ती, गाँधीजी के हरिजन सेवा कार्य को भेट दे दी।हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्षपदइस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो।अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे। सुभाषबाबू ने बेंगलोर में विख्यात वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरैय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद भी ली।1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण किया। सुभाषबाबू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने चिनी जनता की सहायता के लिए, डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के नेतृत्व में वैद्यकीय पथक भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाषबाबू ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया, तब कई लोग उन्हे जापान के हस्तक और फासिस्ट कहने लगे। किन्तु इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाषबाबू न तो जापान के हस्तक थे, न ही वे फासिस्ट विचारधारा से सहमत थे।कांग्रेस के अध्यक्षपद से त्यागपत्र1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, किन्तु गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी बीच युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्षपद की कार्यकाल में इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे।1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ती अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसी कोई दुसरी व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। किन्तु गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे। गाँधीजीने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सितारमैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ ठाकूर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की विनंती की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। किन्तु गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझोता न हो पाने पर, बहुत वर्षों के बाद, कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव लडा गया।सब समझते थे कि जब महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। किन्तु वास्तव में, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिल गए और पट्टाभी सितारमैय्या को 1377 मत मिलें। गाँधीजी के विरोध के बाद भी सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए।किन्तु चुनाव के निकाल के साथ बात समाप्त नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सितारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर, अपने साथीयों से कह दिया कि यदि वें सुभाषबाबू के नीतिओं से सहमत नहीं हैं, तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहें और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बनें रहें।फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना3 मई, 1939 के दिन, सुभाषबाबू नें कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद, सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाला गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही, फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए, जनजागृती शुरू की। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को कैद कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हे रिहा करने पर बाध्य करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण उपोषण शुरू कर दिया। तब सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। किन्तु अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी, कि सुभाषबाबू युद्ध काल में मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हे उनके ही घर में नजरकैद कर के रखा।नजरकैद से पलायननजरकैद से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी, 1941 को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर, अपने घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाडी से कोलकाता से दूर, गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेल्वे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकडकर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर शाह ने उनकी भेंट, कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कर दी। भगतराम तलवार के साथ में, सुभाषबाबू पेशावर से अफ़्ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पडे। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे। पहाडियों में पैदल चलते हुए उन्होने यह यात्रा कार्य पूरा किया।काबुल में सुभाषबाबू 2 माह तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में असफल रहने पर, उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने का प्रयास किया। इटालियन दूतावास में उनका प्रयास सफल रहा। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। अन्त में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर, सुभाषबाबू काबुल से रेल्वे से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होकर जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे।नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकातबर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी बीच सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।कई वर्ष पूर्व हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस पुस्तक में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर क्षमा माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हे कुछ और नहीं मिलने वाला हैं। इसलिए 8 मार्च, 1943 के दिन, जर्मनी के कील बंदर में, वे अपने साथी अबिद हसन सफरानी के साथ, एक जर्मन पनदुब्बी में बैठकर, पूर्व एशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंद महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनदुब्बी तक पहुँच गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में, किसी भी दो देशों की नौसेनाओ की पनदुब्बीयों के बीच, नागरिको की यह एकमात्र बदली हुई थी। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।पूर्व एशिया में अभियानपूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम, वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया।जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने, नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उन्हे सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात, नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।21 अक्तूबर, 1943 के दिन, नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे स्वयं इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल 9 देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए।आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे हुए भारतीय युद्धबंदियों को भर्ती किया गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतो के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहाँ स्थायिक भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भरती होने का और उसे आर्थिक सहायता करने का आवाहन किया। उन्होने अपने आवाहन में संदेश दिया तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनो फौजो ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। यह द्वीप अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद के अनुशासन में रहें। नेताजी ने इन द्वीपों का शहीद और स्वराज द्वीप ऐसा नामकरण किया। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। किन्तु बाद में अंग्रेजों का पलडा भारी पडा और दोनो फौजो को पिछे हटना पडा।जब आज़ाद हिन्द फौज पिछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लडकियों के साथ सैकडो मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा।6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्येश्य के बारे में बताया।अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा । ।लापता होना और मृत्यु की खबरद्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना आवश्यक था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था।दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्च्हय किया, किन्तु वे सफल नहीं रहे। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी तोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी।स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में 2 बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह परिणाम निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। किन्तु जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की सूचना थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई प्रमाण नहीं हैं। किन्तु भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।18 अगस्त, 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।देश के अलग-अलग भागों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं किन्तु इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चंद्र बोस के होने को लेकर मामला राज्य सरकार तक गया। हालांकि राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप योग्य नहीं मानते हुये मामले की फाइल बंद कर दी।टिप्पणी
- कोई भी व्यक्ति कष्ट और बलिदान के माध्यम असफल नहीं हो सकता, यदि वह पृथ्वी पर कोई चीज गंवाता भी है तो अमरत्व का वारिस बन कर काफी कुछ प्राप्त कर लेगा।...सुभाष चंद्र बोस
- एक मामले में अंग्रेज बहुत भयभीत थे। सुभाषचंद्र बोस, जो उनके सबसे अधिक दृढ़ संकल्प और संसाधन वाले भारतीय शत्रु थे, ने कूच कर दिया था।...क्रिस्टॉफर बेली और टिम हार्पर
- सन्दर्भ
- अब छत्तीसगढ़ में सुभाष चंद्र बोस
- आज़ाद भारत में आज़ाद हिंद
- ''नेताजी की हत्या का आदेश दिया था
- बाहरी कड़ियाँ
- नेताजी से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक करे सरकार
- नेताजी सुभाष: सत्य की अनवरत तलाश
- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के कर्ण
- सुभाषचंद्र बोस : संक्षिप्त परिचय (वेबदुनिया)
- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस - आजादी के महानायक
- राष्ट्र गौरव सुभाष: नेताजी से जुड़े वे तथ्य और प्रसंग, जिन्हें हर भारतीय को- खासकर, युवा पीढ़ी को- जानना चाहिए, मगर दुर्भाग्यवश जान नहीं पाते हैं
देश केवल भूमि का एक टुकड़ा, एक आरामगाह, बाज़ार समझते हैं जो, कितना ही लुटा दो उन पर संतुष्ट नहीं होते। जानते हैं शोर मचाकर और लूट सकते हैं। कर्तव्य नहीं है कुछ उनका, अधिकारों का मचा शोर हैं। कर्तव्य हिन्दू के अधिकार दूसरों के-यह आज़ादी कैसी व किस की? वोटबैंक राजनीति, देश की सुरक्षा से खिलवाड़, किसी के हित में नहीं, स्वार्थवश राष्ट्रद्रोह है। (निस्संकोच टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpan पर इमेल/चैट संपर्कसूत्र - https://t.me/ydmstm - तिलक रेलन वरि पत्रकार, युगदर्पण 👑 9971065525,
आ.सूचना,
बिकाऊ मीडिया -व हमारा भविष्य
Sunday, January 23, 2011
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जीवन
Monday, January 17, 2011
भारतीयता बचाने के लिये भारतीय भाषाओं में जीना अनिवार्य ---- विश्वमोहन तिवारी,एयर वाइस मार्शल (से .नि .)
किसी भी राष्ट्र की संस्कृति उसकी भाषा,संगीत,नृत्य,खानपान,पहनावा,तथा धर्म में निहित होती है,भाषा के द्वारा वह पनपती है,अन्यथा वानर भी हमारे ही तरह सुसंस्कृत होते।संस्कार जन्म से ही पड़ना प्रारम्भ हो जाते हैं।बालक व्यवहार की नकल करता है तथा भाषा द्वारा,अभिव्यक्ति करने से भी अधिक महत्वपूर्ण,जीवन का अर्थ,उसके मूल्य तथा जीवन जीने की कला सीखता है।अपनी संस्कृति जीवन के मूल्य सिखलाने के अतिरिक्त,संवेदनशीलता,मिटृी,हवा,पानी,आकाश और सूर्य से प्रेम करना भी सिखलाती हैऌ तथा स्वयं अपनी संस्कृति से भी प्रेम करना सिखलाती है।रसखान बार बार जन्म लेकर उसी ‘ब्रज गोकुल गॉव के ग्वारन’ में रहना चाहते है।संस्कृति के सहज संस्कारों के लिए सुसंस्कृत व्यवहार तथा भाषा यह दो माध्यम महत्वपूर्ण हैं। भाषा को अपने में इतना गरिमामय कर्म करने की क्षमता लाने में सदियां लगती हैंै।
यदि हमारी भाषा चली गई तो ‘हमारा’ भी विनाश हो जाएगा। मात्र इतना नहीं कि इस राष्ट्र में इस राष्ट्र की भाषा बोलने सुनने वालों के स्थान में अंग्रेजी बोलने वाले आ जाएंगे।इस तरह बोलने वाले जो ‘वर्णसंकर’ आएंगे वे मानवीय मूल्यों से,उन शाश्वत मूल्यों से,स्थानीय तथा तात्कालिक मूल्यों से हीन होंगे जो उन्हें इस मिटृी पानी में मानव बना सकते है।वे संभव है कि अपनी पढा.ई लिखाई में – पुस्तकीय ज्ञान – में निष्णात हों,उनमें एक विमान के बराबर ताकत हो सकती है किन्तु उनके विमान में यदि ‘रडर’ ह्यदिशा निर्धारकहृ होगा तब वह ‘रीमोट’ चालित होगा।उन्हें एंजिन ह्यज्ञानहृ द्वारा तेज उड़ने की क्षमता तो मिलेगी किन्तु अपने विमान की दिशा पर वे नियंत्रण नहीं रख सकेंगे और निश्चित रूप से कभी न कभी ‘क्रैश’ करेंगे।अंगेजी पढ़ने के बावजूद उनमें पाश्चात्य संस्कृति के लाभदायी संस्कार भी नहीं आ पाएंगे।पाश्चात्य संस्कृति पाश्चात्य हवा – पानी मिट्टी के लिए विकसित हुई है। उदाहरणार्थ,उन्हे वर्षा ऋतु अच्छी नहीं लगती,शीत ऋतु नहीं भाती,बसंत और ग्रीष्म ही भाती हैं ।प्रकृति तो उनके लिये मात्र उपभोग्य वस्तु ही है,अन्य मनुष्य भी उनके लिये उपभोग्य वस्तु ही होंगे।
सारांश में कहूं तो भाषा का विषय बहुत गम्भीर है – अस्तित्व का प्रश्न है,एक व्यक्ति के नहीं किन्तु,एक समाज,एक राष्ट्र के अस्तित्व का।भाषा मात्र विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम नहीं है,वह एक भूगोल के,इतिहास के,समाज के बीच जीवन को जीवन्त बनाने का माध्यम है,उसमें राम आदर्श स्थापित करते हैं तो कृष्ण व्यावहारिक आदर्श।और दुःख की बात यह है कि हम भाषा को मात्रा ‘रोटी’ कमाने के ध्येय से,हालॉंकि वह भी त्रुटिपूर्ण,सीखते हैं,जिसका स्तर कामचलाऊ होता है।किन्तु हमारी अंग्रेजी की गुलामी इतनी बढ़ गई है कि आज हम नर्सरी से ही विदेशी भाषा सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं।यह भूल जाते है कि जब बच्चे एक भाषा कुछ अच्छी तरह से सीख लेते है तब वे अन्य भाषाएं भी सरलतापूर्वक सीख सकते है। और जब वे एक भी भाषा ठीक से नहीं सीख पाते,तब अन्य भाषाएं भी ठीक से नहीं सीख सकते।मातृभाषा सीखने के लिये बच्चे को सबसे कम परिश्रम करना पड़ता है और वह उसके हृदय की भाषा भी सहज ही बनती है।अंग्रेजी विश्व की एक महत्वपूर्ण भाषा है,उसे भी सीखना चाहिए किन्तु विचारणीय है कि भारत कीे कितनी प्रतिशत जनता को अंग्रेजी सीखने की आवश्यकता है ऋ
भाषा जैसे महत्वपूर्ण विषय में एक बात को स्पष्ट करने की आवश्यकता अभी भी रह जाती है।वह है,इतने विशाल राष्ट्र के लिए जिसमें 18 भाषाएं राज्यों तथा संघ द्वारा स्वीकृत हैं,संपर्कभाषा या राजभाषा कौन सी हो ? इस राष्ट्र की संस्कृति तो मूलरूप से एक है,इसीलिए ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’।अतएव भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिये,पाश्चात्य संस्कृति को लाने वाली अंग्रेजी भाषा – वह चाहे कितनी ही विश्व सुगम क्यों न हो नहीं हो सकती । इस विषय पर हमारे राष्ट्र के सभी महान नेता एक मत थे,और वही संविधान में परिलक्षित हुआ है। विश्व में हिन्दी बोलने –सुनने वालों की संख्या द्वितीय या तृतीय है ।तब हम क्यों डरते हैं ? क्या इसमें आपसी सौहाद्र्र की कमी नजर आती है? थोड़ा परिश्रम करें तब हिन्दी में भी अंग्रेजी के समान ज्ञान का भंडार आ जाएगा।भारत अब एक ऐसा विकासशील राष्ट्र है जो विकास संपन्न होने के लिए ‘टेक –आफ’ की पटृी पर आ गया है।किसी भी विषय में मौलिक चिन्तन की क्षमता की संभावना उसकी भाषाओं में है।
सभी विद्वानों का मत है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में होना चाहिए।माध्यमिक शिक्षा में हिन्दी विशेष रूप से,अन्य भारतीय भाषाएं,अंग्रेजी तथा अन्य भाषाएं सिखलाना चाहिए।पूरी माध्यमिक तथा महाविद्यालय की शिक्षा का माध्यम उस प्रदेश की भाषा ही रहना चाहिए।महाविद्यालय में अंग्रेजी में विशेष योग्यता चाहने वालों के लिये कुछ विषयों का माध्यम अंग्रेजी हो सकता है।
हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में समुत्रत करने के लिए हमें सबसे पहले अंग्रेजी से मोह हटाना होगा।अपनी गलत हीन भावना को दूर करना होगा। इसके लिए मात्र इतना ही साहस चाहिए,“चलें,हम मातृभाषा में काम शुरू तो करें।”
हिंदी को संपर्क भाषा का व्यावहारिक रूप देने के लिए अंग्रेजी को रोटी की अनिवार्यता से अलग करना अत्यंत आवश्यक है।विभिन्न भारतीय भाषाओं तथा हिंदी के बीच विचार विनिमय,अंतर्भारतीय भाषाओं के बीच सीधे अनुवाद के कार्य को बढा.वा देना,इस हेतु कार्यशालाएं,गोष्ठियॉं,पत्रिकाओं इत्यादि को बढ़ावा देना चाहिए।इस दिशा में हिन्दी अकादमी,दिल्ली ने विभिन्न प्रदेशों में गोष्ठियां तथा कार्यशालाएं आयोजित करना प्रारंभ किया हैऌ ऐसा सभी प्रदेशों के हिन्दी संस्थानों को तो करना ही चाहिये,अन्य सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थाओं,सभी को ऐसा कार्य करना चाहिए।दूरदर्शन इस दिशा में सभी भारतीय भाषाओं की अच्छी कृतियों की प्रस्तुति कर तो रहा है किन्तु उससे हमें कहीं अधिक अपेक्षा है– दोनो में मात्रा में तथा ‘गुणवत्ता में’।
गैर हिन्दी भाषा राज्यों के छात्रों को,विशेषकर पूर्वांंंचल क्षेत्र के छात्रों को,यथेष्ट छात्रवृति देकर हिंदी भाषी राज्यों में हिन्दी माध्यम में पढ़ने के लिए उत्साहित करना चाहिए।तथा इसका विलोम भी अर्थात हिन्दी भाषी राज्यों के हिन्दी भाषी छात्रों को इतर राज्यों मे छात्रवृति देकर,उन्हे उसी राज्य की भाषा में शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।यह बहुत ही ‘व्यय– प्रभावी’ पद्धति बन सकती है न केवल हिंदी को प्रभावी संपर्क भाषा बनाने के लिए,वरन आपसी सांस्कृतिक समझ के लिये भी।
सभी हिन्दी राज्यो में हिन्दी के अतिरिक्त,कम से कम,एक अन्य भारतीय भाषा की शिक्षा अनिवार्यतः दी जाना चाहिए। उदाहरणार्थ,मध्यप्रदेश में तेलगू हो सकती है।और उत्तर प्रदेश में मलयालम या तमिल,तथा बिहार में बंग्ला या असमिया. की शिक्षा आदि आदि का प्रबन्ध होना चाहिए। संस्कृति की शिक्षा भी दी जाना चाहिए। संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति का अक्षय कोश है।संस्कृत की शिक्षा प्राथमिक स्तर तक भी यदि दी जा सके तब भी वह लाभदायक होगी।भाषाओं को ‘अभिरुचि’ के रूप में सीखने की सुविधाएं दी जाना चाहिये,यथा ‘भाषा’ सीखने के लिए ‘दृश्य –श्रव्य’ माध्यमों का उपयोग होना चाहिए,इनके लिए शालाओं में क्लबों की स्थापना की जा सकती है।
उच्चस्तरीय मूल लेखन के लिए,विशेषकर तकनीकी तथा शास्त्रीय विषयों में लेखन पठन तथा अनुसंधान के लिए हिन्दी को विशेष प्रोत्साहन मिलना चाहिए।भारतीय भाषाओं पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनमें उच्चस्तरीय अनुसंधान का मूल लेखन नगण्य है ।ऐसा नहीं कि उनमेेंं ऐसी क्षमता नहीं है,बस इस तरफ ध्यान अबश्य दिया जाना चाहिए।हिंदी साहित्यिकों के लिए पुरस्कारों की,उनकी संख्या की,राशि की तथा गरिमा की स्थिति संतोषप्रद है। किंतु वैज्ञानिक, औद्योगिक,अर्थशास्त्रीय,समाजशास्त्रीय,भाषा वैज्ञानिक, गणितीय, रक्षाविभागीय,वित्तीय,ऐतिहासिक,भोैगोलिक आदि विषयों पर कितने पुरस्कार हैं ,कितनी सहायता या प्रोत्साहन मिलता है ॐ स्थिति दयनीय है। मूल चिन्तन तथा मूल लेखन को भारतीय भाषाओं में बढा.वा देने के लिए सर्वप्रथम तो भारतीय भाषाओं के माध्यम में शिक्षा की आवश्यकता है।फिर,इन साहित्येतर विषयों पर पुरस्कारों के अतिरिक्त,अन्य सुविधाओं यथा पुस्तकालयों,प्रकाशन आदि को बढा.वा देने की आवश्यकता भी है।
आज चूँकि आबादी– विस्फोट से हम पीड़ित हैं और आम आदमी की पहली चिन्ता रोजी –रोटी की हो गई है इसलिए यदि आम आदमी यह सोचता है कि अंग्रेजी से उसे रोटी मिलेगी,हिन्दी से नहीं तो यह त्रुटि हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था से दूर करना होगा।हिन्दी को उसका यथा योग्य स्थान देने के बाद किसी भी नौकरी में काम करने की योग्यता मापते समय उसे अंग्रेजी से तभी मापा जाए कि जब उस कार्य के संपादन के लिए अंग्रेजी आवश्यक हो,यथा ब्रिटैन या यू एस ए से सम्पर्क,भारत के भीतर संपर्क के लिये नहीं।मोहवश या एक वायवीय संकल्पना के तहत उस कार्य की क्षमता मापने के लिए अंग्रेजी का मापदण्ड नहीं होना चाहिए। कोई भी कार्य करने के लिए यदि अंग्रेजी आवश्यक नही है,तब मात्र पत्राचार के लिए उसे आवश्यक मानना मोह ग्रस्त होना है।अंग्रेजी को बढ़ावा देने में यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हमारी सरकार ही सर्वाधिक दोषी है।सर्वप्रथम हमें अपनी शासन व्यवस्था में से अंग्रेजी हटाकर अपनी भाषाएं लाना जरूरी है।अंतर्राष्ट्रीय बनने का स्वप्न तभी सार्थक होगा कि जब हम अंतर्राष्ट्रीय बनने से पहले राष्ट्रीय तो बनें।और राष्ट्रीय बनने के लिये अंग्रेजी को राजभाषा का दर्जा देने की अपेक्षा हिन्दी न्यायोचित तथा उपयोगी माध्यम है।
आज वैज्ञानिक तथा औद्योगिक आविष्कारों ने कम्पयूटरों को बहुभाषीय बना दिया है।किसी भी भारतीय भाषा में कम्प्यूटर में कार्य करना सुगम हो गया है।जब एक छोटा सा देश जापान या इज़राइल अपने समस्त कार्य अपनी भाषाओं में करते हुए विश्व के अग्रणी देशो में आ सकता है,तब हम क्यों नहीं।जापान विश्व में दूसरी बड़ी आर्थिक शक्ति है,और इज़राएल नोबेल पुरस्कार जीतने में। चार भाषाओ वाला ग्रेट ब्रिटैन,अंग्रेजी को सम्पर्क भाषा मानकर तथा अनेक भाषाओ वाला सोवियत संघ ह्यजिसका कि अब माक्र्सवादी सोच की विफलता के कारण विघटन हो चुका है हृ रूसी भाषा के माध्यम द्वारा विश्व की अग्रिम पंक्ति में रह सकते हैं तब हम क्यों नही ॐ इन सभी देशों ने अनुवाद के कार्य में यथेष्ट क्षमता प्राप्तकर,समस्त आवश्यक जानकारी अपनी भाषा में उपलब्ध कराई है।हम अंग्रेजी का उपयोग करें उसकी गुलामी नहीं,भारतीय भाषओं में जीवन जीते हुए ही भारत भारत रहेगा,उन्नति करेगा,सामथ्र्यवान देश बनेगा,विश्व की अग्रिम पंक्ति में सम्मानपूर्वक खड़ा होगा।
विश्वमोहम तिवारी,एयर वाइस मार्शल ह्यसे .नि .हृ,ई 143,सैक्टर 21,नौएडा,201301
Monday, January 10, 2011
लाल बहादुर शास्त्री आदर्श आरंभिक जीवन
लाल बहादुर शास्त्री आदर्श आरंभिक जीवन
“ | हर राष्ट्र के जीवन में एक समय ऐसा आता है, जब वह इतिहास के चौराहे पर खड़ा होता है और उसे अपनी दिशा निर्धारित करनी होती है !.किन्तु हमें इसमें कोई कठिनाई या संकोच की आवश्यकता नहीं है! कोई इधर उधर देखना नहीं हमारा मार्ग सीधा व स्पष्ट है! देश में सामाजिक लोकतंत्र के निर्माण से सबको स्वतंत्रता व वैभवशाली बनाते हुए विश्व शांति तथा सभी देशों के साथ मित्रता ! | ” |
देश केवल भूमि का एक टुकड़ा नहीं !