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Tuesday, April 20, 2010

वन्दे मातरम् : तालीमात मां तसलीमात



मां भी अपने बच्चों को सारी उम्र अपनी गोद में नहीं रखती...लेकिन धरती मां बच्चे के जन्म से लेकिन उसकी ज़िन्दगी के फ़ना होने तक उसे सीने से लगाकर रखती है... उसके क़दमों को ज़मीन देती है, रहने को घर देती है... खाने को अनाज, फल-सब्ज़ियां देती है... बीमार होने पर जड़ी-बूटियां देती है... पीने को पानी देती है... सांस लेने को स्वच्छ हवा देती है... क्या ऐसी मां का निरादर जायज़ है...???
ईसाई भी मूर्ति पूजा नहीं करते हैं. इसके बावजूद इस समुदाय का कोई भी व्यक्ति वन्दे मातरम् को लेकर हंगामा नहीं करता...
फिर क्यों मज़हब के ठेकेदार फ़तवे जारी कर-करके मुसलमानों से मातरम् का विरोध करने का ऐलान करते हैं...
क्या मुसलमानों का ईमान इतना कमज़ोर है कि बात-बात पर टूट जाता है...???
वैसे भी मज़हब के इन ठेकेदारों से कोई भी उम्मीद करना बेकार ही  है... वो जिस औरत की कोख से जन्म लेते हैं और फिर उसी को ज़लील करते हैं...
(कल्बे जव्वाद का बयान सभी को याद ही होगा, जिसमें कहा गया  था कि औरतों का काम सिर्फ़ बच्चे पैदा करना है...)
हैरत की बात है... जो शख्स दिखाई देने वाले अपने मुल्क से प्रेम नहीं कर सकता, अपने देश की संस्कृति से प्रेम नहीं कर सकता... तो वो उस ख़ुदा से क्या ख़ाक मुहब्बत करेगा, जिसे किसी ने देखा तक नहीं...
कितने शर्म की बात है... जेहाद के नाम पर दहशतगर्दी तो मज़हब में जायज़ है, लेकिन राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम् गाने से ईमान को ख़तरा पैदा हो जाता है...

हमें वन्दे मातरम् याद है और हम फ़क्र के साथ यह गीत गाते हैं...
कई साल पहले की बात है. चंडीगढ़ में एक सियासी पार्टी ने बड़े कार्यकर्म का आयोजन किया, जिसमें देशभर से पार्टी के बड़े पदाधिकारी आए थे...

कार्यक्रम की शुरुआत होने का वक़्त का गया... तभी एक व्यक्ति ने कहा कि वन्दे मातरम् से शुरुआत की जानी चाहिए... सभी इस बात का स्वागत किया... फिर कहा गया कि जिसे वन्दे मातरम् पूरा आता हो वो मंच पर आ जाए... लोग एक दूसरे का मुंह देखने लगे... हो सकता है उन्हें इस बात का संकोच हो... कहीं वो उच्चारण ग़लत न कर बैठें या फिर पूरा न गा पाएं...
तभी हम मंच तक गए और पूरा वन्दे मातरम् गाया... वाक़ई बहुत प्यारा गीत है... वन्दे मातरम्...., लेकिन यह गीत देशप्रेमी ही गा सकते हैं...वो लोग नहीं, जो रहते तो हिन्दुस्तान में हैं, लेकिन उनकी निष्ठा इस देश के प्रति नहीं है... ऐसे लोगों को क्या कहते हैं... बताने की ज़रूरत नहीं...
 
पेश है आरिफ़ मोहम्मद खान द्वारा किया गया वन्दे मातरम् का उर्दू अनुवाद
तालीमात मां तसलीमात

तू भरी है मीठे पानी से
फल-फूलों की शादाबी से
दक्किन की ठंडी हवाओं से
फ़सलों की सुहानी फ़िज़ाओं से
तालीमात मां तसलीमात...

तेरी रातें रौशन चांद से
तेरी रौनक़ सब्ज़े-फ़ाम से
तेरी प्यार भरी मुस्कान है
तेरी मीठी बहुत ज़ुबान है
तेरी बांहों में मेरी राहत है
तालीमात मां तसलीमात...

आख़िर में
जिस जन्नत का लालच देकर 'मज़हब के ठेकेदार' लोगों को बहकाते हैं, उस जन्नत की हक़ीक़त क्या है...???

इस दुनिया में मर्दों के लिए चार औरतों का इंतज़ाम तो है ही, साथ ही जन्नत में भी 72 हूरें और पीने के लिए जन्नती शराब मिलेगी...यानि अय्याशी का पूरा इंतज़ाम...
जैसे जन्नत न हुई अय्याशी का अड्डा हो गया...
"फ़िरदौस ख़ान की डायरी" जितनी पढ़ता जाता हूँ उतना पिघलता जाता हूँ, आज कहीं बिलकुल ही न पिघल जाऊ!
भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक
देश केवल भूमि का एक टुकड़ा नहीं !

हमारे सवालों से 'ईमान' ख़तरे में पड़ जाता है...

हमारे सवालों से 'ईमान' ख़तरे में पड़ जाता है...

हमें बचपन से ही सवाल पूछने की आदत है... जब भी किसी (मुसलमान) से मज़हब से जुड़े सवाल पूछो तो जवाब मिलता है कि इससे 'ईमान' ख़तरे में पड़ जाता है... यानि सवाल इस्लाम के प्रति शक पैदा करते हैं... इससे 'ईमान' डोलने लगता है... और किसी भी 'मुसलमान' को ऐसा नहीं करना चाहिए... यह गुनाहे-कबीरा है...यानि ऐसा गुनाह जिसकी कहीं कोई मुआफ़ी नहीं... और यह गुनाह किसी को भी दोज़ख (नर्क) की आग में झोंकने के लिए काफ़ी है...

इस्लाम की बुनियाद अरब की जंगली कुप्रथाओं के खिलाफ़ रखी गई थी... उस वक़्त इस्लाम को क़ुबूल करने वाले लोग सुधारवादी थे... हैरत की बात है जिस मज़हब की बुनियाद सुधार के लिए रखी गई थी, आज उसी मज़हब के अलमबरदार सुधार के नाम से 'मारने-मरने' को उतारू हो जाते हैं...
सुधार तो निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है... इसमें 'कोमा' तो हो सकता है, लेकिन 'फ़ुल स्टॉप' नहीं.
मुसलमानों में बच्चों को यही बुनियादी तालीम दी जाती है कि दुनिया में इस्लाम ही एकमात्र मज़हब है जो अल्लाह का है और अल्लाह ने ही शुरू किया है, जबकि दूसरे धर्म मनुष्य ने शुरू किए हैं...

अल्लाह सर्वशक्तिमान है, जबकि दूसरे धर्मों के देवी-देवता 'शैतान' हैं...यानी अल्लाह के विरोधी हैं... ऐसे में भला कौन अपने अल्लाह के विरोधियों को अच्छा समझेगा...??? उनके देवी-देवताओं के बारे में ग़लत बातें की जाती हैं... इसलिए लोगों की ऐसी मानसकिता बन जाती है कि वो ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ और दूसरे धर्मों को तुच्छ समझते हैं...

हम एक साल तक मदरसे में पढ़े हैं, यानि तीसरी जमात... हमें भी यह सब पढ़ाया गया है...
हमने अप्पी (मुल्लानी जी को अप्पी कहते थे) से पूछा- जब हमारा अल्लाह ही सर्वश्रेष्ठ है तो फिर...क्यों हिन्दुओं की मुरादें पूरी होती हैं...??? इस दुनिया में हिन्दू तो पहले से हैं, लेकिन मुसलमान बाद में क्यों बने...???
अल्लाह ने सभी को अपने मज़हब का क्यों नहीं बनाया...???
ये हमारे वो सवाल थे जिनका जवाब मुल्लानी जी के पास नहीं था...
उन्होंने कहा- तुम बहुत सवाल करती हो... यह अच्छी बात नहीं है... बच्चों को जो समझाया जाता है... उन्हें उसी को याद करना चाहिए... ऐसे सवालों से ईमान ख़तरे में पड़ जाता है...
ख़ैर, हमारा 'ईमान' हमेशा ख़तरे में रहता है... क्योंकि हम सवाल बहुत करते हैं...

बहुत से सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब हम बचपन से तलाश रहे हैं...

मसलन
अल्लाह ने संसार की सृष्टि करके इसे हिन्दुओं के हवाले क्यों कर दिया...??? हिन्दुओं के दौर में भी संसार आगे बढ़ा... कई सभ्यताएं आईं...

दूसरे मज़हब के लोगों को किसने पैदा क्या है...??? अगर अल्लाह ने... तो फिर क्यों अल्लाह को मानने वाले 'मुसलमान' दूसरे मज़हबों के लोग को 'तुच्छ' समझते हैं... क्या अपने ही अल्लाह की संतानों (दूसरे मज़हब के लोगों) के साथ ऐसा बर्ताव जायज़ है...???
क्या दूसरे मज़हबों के धार्मिक ग्रंथों और उनके ईष्ट देवी-देवताओं के बारे में अपमानजनक बातें करने से... उनका दिल दुखाने से अल्ल्लाह ख़ुश होगा...??? क़तई नहीं... 

'मुसलमानों' की अपने मज़हब को श्रेष्ठ समझने और दूसरे मज़हबों को 'तुच्छ' समझने की मानसिकता ने बहुत से विवादों को पैदा कर दिया है... इनमें सबसे अहम है दहशतगर्दी... जिससे आज कई मुल्क जूझ रहे हैं...  इससे इनकार नहीं किया जा सकता...
जब अल्लाह ने सभी को 'मुसलमान' पैदा नहीं किया तो फिर क्यों मज़हब के ठेकेदार सभी कौमों को 'मुसलमान' बनाने पर तुले हुए हैं...???
इस्लाम धर्म के संस्थापक हज़रत मुहम्मद (सल्लल.)  से पहले जो एक लाख 24 हज़ार नबी हुए हैं... वो किस मज़हब को मानते थे...???
सभी धर्मों का सम्मान किया जाना चाहिए... जब हम किसी और के मज़हब का सम्मान नहीं करेंगे तो फिर किसी और से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वो भी हमारे मज़हब को अच्छा समझे...
सवाल बहुत हैं... लेकिन अभी इजाज़त चाहते हैं...

जय हिंद
वन्दे मातरम्
फ़िरदौस ख़ान
युवा पत्रकार, शायरा और कहानीकार... उर्दू, हिन्दी और पंजाबी में लेखन. उर्दू, हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, इंग्लिश और अरबी भाषा का ज्ञान... दूरदर्शन केन्द्र और देश के प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों दैनिक भास्कर, अमर उजाला और हरिभूमि में कई वर्षों तक सेवाएं दीं...अनेक साप्ताहिक समाचार-पत्रों का सम्पादन भी किया... ऑल इंडिया रेडियो, दूरदर्शन केन्द्र से समय-समय पर कार्यक्रमों का प्रसारण... ऑल इंडिया रेडियो और न्यूज़ चैनल के लिए एंकरिंग भी की है. दैनिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण ट्रिब्यून, अजीत समाचार, देशबंधु और लोकमत सहित देश-विदेश के विभिन्न समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और समाचार व फीचर्स एजेंसी के लिए लेखन... मेरी ' गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत' नामक एक किताब प्रकाशित... इसके अलावा डिस्कवरी चैनल सहित अन्य टेलीविज़न चैनलों के लिए स्क्रिप्ट लेखन जारी... उत्कृष्ट पत्रकारिता, कुशल संपादन और लेखन के लिए अनेक पुरस्कारों ने नवाज़ा जा चुका है...इसके अलावा कवि सम्मेलनों और मुशायरों में भी शिरकत...कई बरसों तक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम भी ली... उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी और रशियन अदब (साहित्य) में ख़ास दिलचस्पी. फ़िलहाल 'स्टार न्यूज़ एजेंसी' और 'स्टार वेब मीडिया' में समूह संपादक का दायित्व संभाल रही हूं... जिस दिन हर मुसलमान फिरदोस खान बन जायेगा दुनिया से आतंक मिट कर स्वर्ग उतर आयेगा, जिस दिन स्व. अब्दुल हमीद से बन जायेंगे भारत की तरफ कोई आंख भी नहीं उठा पायेगा !! 
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हमने अम्मी, दादी, नानी, मौसी और भाभी को बुर्क़े की क़ैद से दिलाई निजात


ब्लॉगवाणी से अनुरोध : असामाजिक तत्वों का बहिष्कार करे...
कुछ असामाजिक तत्व, (इस्लाम के ठेकेदार ब्लोगर) जो ब्लॉगवाणी के सदस्य भी हैं... बेहद बेहूदा कमेन्ट कर रहे हैं...
ब्लॉगवाणी से हमारा अनुरोध है कि ऐसे तत्वों को बाहर का रास्ता दिखाए...
साथ ही अपने भाइयों और बहनों से अनुरोध है कि वो भी इन ग़द्दार और असभ्य लोगों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं...






बचपन से हमने देखा... हमारी अम्मी कभी घर से बाहर नहीं निकलती थीं... घर का सारा सामान अब्बू ही लाते थे... कपड़े भी... अब्बू जो ले आए अम्मी ने वही पहने... अपनी मर्ज़ी का तो कोई सवाल ही नहीं... अगर खुद बाज़ार जाती तो अपनी पसंद से लातीं भी... जब कभी ननिहाल जाना होता तभी घर से बाहर पैर निकालतीं... कई-कई साल घर की चुखत से बाहर क़दम न रखतीं...

हम बड़े हुए तो हमने कहा कि बहुत हो चुका... अब अम्मी खुद अपनी मर्ज़ी से कपड़े खरीदेंगी... घर की चहारदीवारी से बाहर की दुनिया देखेंगी... अम्मी ना-नुकर के बाद मान गईं, लेकिन बुर्क़े के बिना बाहर जाने से मना कर दिया... हमने बहुत समझाया... हमारी दादी जान ने भी कहा कि बच्चे कहते हैं तो मान ले उनकी बात... हालांकि हमारी दादी जान भी बुर्क़ा ओढ़ती थीं, सफ़ेद बुर्क़ा... और सफ़ेद बुर्क़ा ओढ़कर वो बिलकुल 'भूत' जैसी लगती थीं...
हमने दादी से पूछा कि आप बुर्क़ा क्यों ओढ़ती हैं...?
उन्होंने कहा कि सभी ओढ़ते हैं, इसलिए ओढ़ती हूं...
हमने कहा- क्या आपको बुर्क़ा ओढ़ना अच्छा लगता है...?
कहने लगीं, बिलकुल नहीं...
यही जवाब हमारी अम्मी का था...
हमने अम्मी से पूछा- क्या अब्बू या दादा जान बुर्क़ा ओढ़ने को कहते थे...
उन्होंने कहा- कभी भी न तो हमारे अब्बू ने अम्मी को बुर्क़ा ओढ़ने को कहा और न ही दादा ने... बस वो पहले से ओढ़ती रहीं हैं इसलिए ही ओढती हैं... ख़ैर, अब तो दादा ज़िंदा भी नहीं थे...

अम्मी ने बताया कि हमारे नाना जान बुर्क़े को पसंद नहीं करते थे... वो मुंबई में रहते थे... वो चाहते थे कि हमारी नानी भी बुर्क़ा न ओढें... उन्हें साड़ियां बहुत पसंद थीं... नानी जान के लिए क़ीमती साड़ियां लाते... लेकिन नानी जान बहुत ही रूढ़िवादी थीं... इसलिए वो नाना जान के हिसाब से कभी नहीं रहीं... दोनों के विचारों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ था...
नाना जान अम्मी के लिए भी साड़ियां लाते थे... लेकिन अम्मी ने कभी साड़ी नहीं पहनी... क्योंकि उन्हें साड़ी पहननी नहीं आती थी और कहती थीं कि अब झिझक होती है...
अम्मी हमसे कहतीं- आज तेरे नाना ज़िंदा होते तो तुझे देखकर बहुत ख़ुश होते...
हमारी अम्मी और दादी दोनों का बुर्क़ा छूट गया था...

हमारी छोटी ख़ाला जान (मौसी) को बुर्क़ा बिलकुल पसंद नहीं था... लेकिन उन्हें मजबूरन ओढ़ना पड़ता था... घर में नानी जान का हुक्म चलता था... हमारे मामा भी कम कठमुल्ले नहीं हैं...
जब ख़ाला जान हमारे घर आईं तो हमने उनका बुर्क़ा छुपा दिया और बिना बुर्क़े के ही उन्हें शहर घुमाया... अल्लाह का करम है कि ख़ाला जान का निकाह किसी कठमुल्ले से न होकर 'इंसान' के साथ हुआ... ख़ाला जान की ससुराल में कोई भी महिला बुर्क़ा नहीं ओढ़ती...
जब हमारी नानी हमारे घर आईं तो हमने उनका बुर्क़ा भी छुड़वा दिया...
वो कहने लगीं- अगर अपने मियां की बात मान लेती तो कितना अच्छा होता... शायद यह ख़ुशी उनके नसीब में ही नहीं थी...

हमारे भाई की शादी हुई तो दुल्हन के कपड़ों के साथ हमने बुर्क़ा नहीं भेजा... जबकि दुल्हन की बड़ी बहन की ससुराल से बुर्क़ा आया...(हमारी होने वाली भाभी और उनकी बड़ी बहन का निकाह एक ही दिन हुआ था...)
औरतों ने हंगामा कर दिया... कि कपड़े पूरे नहीं आए... लड़की के भाई हमारे घर आए...
हमने कहा कि हमें अपने घर की बहु को बुर्क़ा नहीं ओढ़वाना... पहले तो उन्होंने ऐतराज़ जताया, लेकिन बाद में मान गए...

हमारा मानना है कि हर कुप्रथा के खात्मे के लिए अपने घर से ही पहल करनी चाहिए...
घर के बाद ख़ानदान और फिर समाज की बारी आती है... 
कुप्रथा व अनुचित व्यवहार को त्याग कर ही संस्कृति जिवंत हो उठेगी  संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक
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हमने दो हिन्दू लड़कियों को 'लव जेहाद' से बचाया

अब बर्दाश्त से बाहर हो गया है... इसलिए पोस्ट से पहले इस सूचना को लिख रहे हैं, ताकि पढ़ने वाले जान लें कि इस्लाम के ये 'प्रचारक' किस तरह 'वेद-क़ुरआन' के नाम पर गंदा खेल रहे हैं...



सलीम जी! क्या यही 'मुसल्मानियत' है आपकी मंडली की...???सलीम जी! आप दुनिया को तो 'संदेश' देते फिर रहे हैं... क्या यही 'मुसल्मानियत' है आपकी मंडली की...???... एक फ़र्ज़ी  नाम से फ़र्ज़ी टिप्पणियां करो... आपकी एक पोस्ट में firdosh khan के नाम पर क्लिक करने पर 'वेद कुरआन' ब्लॉग खुलता है...इस तरह पीठ पर वार तो सिर्फ़ 'ग़द्दार' ही कर सकते हैं...

'लव जेहाद' की एक सच्ची कहानी...
सुरेश चिपलूनकर जी ने अपने एक लेख में 'लव जेहाद' का ज़िक्र किया है...
क़रीब तीन साल पहले हमने दो हिन्दू लड़कियों को 'लव जेहाद' से बचाया था... ये लड़कियां आज बहुत सुखी हैं... और इनके माता-पिता हमें बहुत स्नेह करते हैं...
बात तीन साल पुरानी है...

हमारे शहर के दो मुस्लिम लड़के हैं, दोनों भाई हैं... उन्होंने पड़ौस की ही दो ब्राह्मण बहनों से 'प्रेम' (वास्तव में जो प्रेम हो ही नहीं सकता) की पींगे बढ़ानी शुरू कर दीं... दोनों लड़के अनपढ़ हैं, जबकि लड़कियां कॉलेज में पढ़ रही थीं...
वो लड़कियों को शोपिंग कराते, उन्हें बाइक पर घुमाते... ब्राह्मण परिवार में वो लड़के दिन-दिनभर रहते...
एक बार उनमें से एक लड़के ने किसी पुलिस वाले से मारपीट कर ली, उसे हिरासत में ले लिया गया... उसका भाई मदद के लिए हमारे पास आया... हमने एसपी से बात करके मामले रफ़ा-दफ़ा करवा दिया... साथ ही हिदायत भी दी कि फिर कभी ऐसी हरकत की तो हमारे पास मत आना...

उन भाइयों में से बड़ा भाई नमाज़ का बहुत पाबन्द है... वो 'जमात' में भी जाता है... जबकि 'छोटा भाई' तो शायद साल-छह महीने में ही मस्जिद का मुंह देखता है... 'बड़े भाई' ने हमारे भाइयों को भी 'सबक़' सिखाना शुरू किया... हमारे छोटे भाई ने एक दिन इस बात का ज़िक्र हमसे किया... हमने कहा कि उन 'भाइयों' से दूर ही रहना... कहीं मिले तो 'बड़े भाई' कहना हमने दफ़्तर बुलाया है... इस बात के दो दिन बाद 'बड़ा भाई' हमारे दफ़्तर आया... हमने उससे बहुत सी बातें पूछीं... मसलन जमात , जमात की शिक्षाओं और फिर वही, धर्मांतरण, जन्नत-दोज़क़, ताकि हा उसे बातों में लगाकर वो सब पूछ सकें... जो हम जानना चाहते हैं... हम उनसे पूछा- उन लड़कियों का क्या क़िस्सा है... ???
पहले तो उसने टाल-मटोल की, मगर जब हमने मदद का दिलासा दिलाया तो वो बताने को राज़ी हो गया...
उसने बताया कि वो छोटी वाली लड़की से प्रेम करता है... और उसका छोटा भाई बड़ी लड़की से...
हमने कहा- वो तो 'हिन्दू' हैं और तुम मुसलमान...क्या तुम्हारे घर वाले मान जाएंगे... ?
वो ख़ुश होकर बोला- क्यों नहीं आख़िर 'नेक' काम कर रहा हूं... इससे हमें सवाब मिलेगा...
हमने पूछा-नेक का...? वो कैसे...?
उसने कहा- वो लड़कियां काफ़िर हैं... हम उन्हें 'कलमा' पढ़ा लेंगे... इससे हमें दस हज का सवाब मिलेगा... और मरने के बाद जन्नत...जन्नत में 72 हूरें मिलेंगी, जन्नती शराब मिलेगी...
हमें पूछा- यह सब तुम्हें किसने सिखाया...?
वो कहने लगा- हमें जमात में यह सब बताया जाता है...
हमने कहा- एक बात बताओ... दस हज के सवाब के लिए दो लड़कियों की ज़िन्दगी बर्बाद करना क्या जायज़ है...?
वो हैरान होकर हमारी तरफ़ देखने लगा और बोला- जिंदगी बर्बाद क्यों होगी...?
हमने कहा- वो लड़कियां पढ़ी-लिखी हैं और ज़ाहिर है, क़ाबिल और पढ़े-लिखे लड़कों से शादी करेंगी तो ख़ुशहाल ज़िन्दगी बसर करेंगी, जो तुम्हारे साथ मुमकिन नहीं...
तुम लोग हिन्दू लड़कियों से शादी करके उन्हें (अपने लालच के लिए) मुसलमान तो बना लोगे, लेकिन क्या कभी सोचा है, उन मुस्लिम लड़कियों का क्या होगा, जिनसे तुम्हारी शादी होती... वो कहां जाएंगी...???
जन्नती शराब के लिए दो मासूम लड़कियों की ज़िन्दगी तबाह करने से क्या यह बेहतर नहीं है कि तुम शराब पी लो...???
जन्नत में 72 हूरों के साथ अय्याशी को क्या कहा जाएगा...??? पुण्य का फल...???
ख़ैर... हम जानते थे, यह लड़कों को बचपन से ही घुट्टी की तरह पिलाई जाती हैं, ऐसे लोग फिर कहां किसी की बात मानते हैं...
ऐसी मानसिकता के लोगों के करम में भी अय्याशी (दुनिया में चार-चार औरतों के साथ) और फल में भी अय्याशी (जन्नत में 72 हूरों के साथ) कूट-कूटकर भरी होती हैं...

हमने उसे विदा किया... बाद में हमने अपनी अम्मी से इस बारे में बात की... उन्होंने कहा कि लड़कियों की मां और और वो लड़कियां तुम्हें बहुत मानती हैं... उनसे बात कर लो... बहन-बेटियां सबकी सांझी होती हैं... (हमें अपनी अम्मी की यह बात बहुत अच्छी लगी...)
काश! सभी ऐसा ही सोच सकते...

अगले दिन इतवार था... हम लड़कियों के घर गए और उन्हें सभी बातें अच्छी तरह से समझा दीं... उनके सामने पूरी ख़ुशहाल ज़िन्दगी पड़ी है... ऐसे लड़कों के साथ क्यों ज़िन्दगी ख़राब कर रही हैं...

कुछ माह बाद पता चला कि चंडीगढ़ में उन लड़कियों की शादी हो गई और वे बहुत सुखी हैं... वो लड़कियां अपने मायके आई हुई हैं... कल घर भी आईं थीं... उन्होंने हमसे कहा... दीदी हम आपको अपना मार्गदर्शक मानती हैं... आप हमें न समझातीं तो आज पता नहीं हम कहां और किस हाल में होतीं...!!!

हमें उनसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई...
ईश्वर उन्हें हमेशा सुखी रखे... यही कामना है... 

जन्नत की हक़ीक़त क्या है...???

इस दुनिया में मर्दों के लिए चार औरतों का इंतज़ाम तो है ही, साथ ही जन्नत में भी 72 हूरें और पीने के लिए जन्नती शराब मिलेगी...यानि अय्याशी का पूरा इंतज़ाम...
जैसे जन्नत न हुई अय्याशी का अड्डा हो गया...
इस लेख में हमने सिर्फ़ उसी का ज़िक्र किया है... जो हो रहा है... और इसे 'कुतर्कों' से झुठलाया नहीं जा सकता...
ज़रूरी बात : कुछ 'मुस्लिम ब्लोगर भाई' हमारे ब्लॉग पर 'असभ्य' भाषा में टिप्पणियां लिखकर  अपने 'संस्कारों' का प्रदर्शन कर रहे हैं... ऐसे लोगों  से हमारा विन्रम निवेदन है कि वो यहां न आएं... यह 'सभ्य' लोगों के लिए है...
इस लेख को पढ़ कर भाव विभोर हो अश्रु धार प्रवाहित हो चली! भारतीय संस्कृति की सीता का हरण करने देखो, साधू वेश में फिर आया रावण! संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व!! फ़िरदौस ख़ान तुझे नमन, एक ऐसे व्यक्ति का जो आसानी से किसी को नमन नहीं करता  -तिलक
देश केवल भूमि का एक टुकड़ा नहीं !