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बिकाऊ मीडिया -व हमारा भविष्य

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Sunday, February 28, 2010

होली है.....! उल्लास का पर्व है,हुडदंग नहीं,उल्लासऔर शालीनता से मनाएं;अखिल विश्व में विराजे हिन्दुओं को युगदर्पण परिवार की ओर से, सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनायें !!


तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611, (yugdarpanh@gmail/yahoo.com

Sunday, February 14, 2010

Valentine kaa maayaajaal: Prem/ Dikhaavaa/ Vyaapaar/Chhalaavaa


Saturday, 13 February 2010

वलेंतिने का मायाजाल: प्रेम/ दिखावा/ व्यापर/छलावा.
भारतीय मूल्यों की प्रसांगिकता (युग दर्पण राष्ट्रीय समाचार पत्र के अंक १६-२२ फरवरी २००९ में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख, आज ब्लॉग के माध्यम पुन: प्रकाशित )
 विविधता तो भारत की विशिष्टता सदा से रही है किन्तु आज विविधता में एकता केवल एक नारा भर रह गया है!विभिन्न समुदायों में एहं व परस्पर टकराव का आधार जाति, वर्ग, लिंग,धर्म ही नहीं, पीडी की बदलती सोच मर्यादाविहीन बना विखंडन के संकेंत दे रही है! इन दिनों वेलेंतैनेडे के पक्ष विपक्ष में तथा आजादी और संस्कृति पर मोर्चे खुले हैं. वातावरण गर्मा कर गरिमा को भंग कर रहा है .
-बदलती सोच- एक पक्ष पर संस्कृति के नाम पर कानून में हाथ लेने व गुंडागर्दी का आरोप तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के अतिक्रमण के आरोप है! दूसरे पर आरोप है अपसंस्कृति अश्लीलता व अनैतिकता फैलाने का! दूसरी ओर आज फिल्म टीवी अनेक पत्र पत्रिकाओं में मजोरंजन के नाम पर कला का विकृत स्वरूप देश की युवा पीडी का ध्यान भविष्य व ज्ञानोपार्जन से भटका कर जिस विद्रूपता की ओर लेजा रहा है! पूरा परिवार एक साथ देख नहीं सकता!
   घर से पढ़ने निकले १५-२५ वर्ष के युवा इस उतेजनापूर्ण मनोरंज के प्रभाव से सार्वजनिक स्थानों (पार्को) में अर्धनग्न अवस्था व आपतिजनक मुद्रा में संलिप्त दिखाई देते हैं! जिससे वहां की शुद्ध वायु पाना तो दूर (जिसके लिए पार्क बने हैं) बच्चों के साथ पार्क में जाना संभव नहीं! फिर अविवाहित माँ बनना व अवैध गर्भाधान तक सामान्य बात होती जा रही है! हमारें पहिये संविधान और समाज की धुरियों पर टिके हैं तो इन्ही के सन्दर्भ के माध्यम स्तिथि का निष्पक्ष विवेचन करने का प्रयास करते हैं!
   विगत ६ दशक से इस देश में अंग्रेजों के दासत्व से मुक्ति के पश्चात् इस समाज को खड़े होने के जो अवसर पहले नहीं मिल पा रहे थे मिलने लगे, इस पर प्रगतिशीलता और विकास के आधुनिक मार्ग पर चलने का नारा समाज को ग्राह्य लगना स्वाभाविक है! किन्तु दुर्भाग्य से आधुनिकता के नाम पर पश्चिम की अंधी दौड़ व प्रगतिशीलता के नाम पर "हर उस परम्परा का" विरोधकीचड़ उछाला जाने लगा, जिससे इस देश को उन "मूल्यों आदर्शों संस्कारों मान्यताओं व परम्पराओं से पोषण उर्जा व संबल" प्राप्त होता रहा है! जिन्हें युगों युगों से हमने पालपोस कर संवर्धन किया व परखा है तथा संपूर्ण विश्व ने जिसके कारण हमें विश्व गुरु माना है! वसुधैव कुटुम्बकम के आधार पर जिसने विश्व को एक कल्याणकारी मार्ग दिया है! विश्व के सर्वश्रेष्ट आदर्शो मूल्यों व संस्कारों की परम्पराओं को पश्चिम की नवोदित संस्कृति के प्रदूषित हवा के झोकों से संक्रमित होने से बचाना किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं ठहराया जा सकता
सहिष्णुता नैसर्गिक गुण- क्या हमने कभी समझने का प्रयास किया कि आजादी के पश्चात् जब मुस्लिम बाहुल्य पाकिस्तान एक इस्लामिक देश बना, तो हिन्दू बाहुल्य भारत हिन्दवी गणराज्य की जगह धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त गणराज्य क्यों बना? यहाँ का बहुसंख्यक समाज स्वभाव से सदा ही धार्मिक स्वतंत्रता व सहिष्णुता के नैसर्गिक गुणों से युक्त रहा है! धर्म के प्रति जितनी गहरी आस्था विभिन्न पंथों के प्रति उतनी अधिक सहिष्णुता का व्यवहार उतना ही अधिक निर्मल स्वभाव हमें विरासत में मिला है! विश्व कल्याण व समानता का अधिकार हमारी परम्परा का अंग रही है! उस निर्मल स्वभाव के कारण सेकुलर राज्य का जो पहाडा पडाया गया हमने उसे स्वीकार कर लिया!
    ६० वर्ष पूर्वकी उस पीडी के लोग जानते हैं, सामान्य भारतीय (मूल हिन्दू) स्वभाव सदा ही निर्मल था! वे यह भी जानते हैं कि विश्व कल्याण व समानता के अधिकार दूसरो को देने में सकोच न करने वाले उस समाज को ६० वर्ष में किस प्रकार छला गया? उसका परिणाम भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है! हम कभी हिप्पिवाद, कभी आधुनिकता के नाम खुलेपन (अनैतिकता) के द्वार खोल देते हैं! अब स्थिति ये है कि आज यह देश मूल्यहीनता, अनैतिकता, अपसंस्कारों, अपराधों व विषमताओं सहित; अनेकों व्याधियों, समस्याओं व चुनोतियों के अनंत अंधकार में छटपटा रहा है? उस तड़प को कोई देशभक्त ही समझ सकता है! किन्तु देश की अस्मित के शत्रुओं के प्रति नम्रता का रुझान रखने वाले देश के कर्णधार इस पीढा का अनुभव करने में असमर्थ दिखते हैं!
 निष्ठा में विकार- आजादी की लड़ाई में हिन्दू मुसलिम सभी वन्दे मातरम का नारा लगाते, उससे ऊर्जा पाते थे. उसमे वे भी थे जो देश बांटकर उधर चले गए, तो फिर इधर के मुसलमान वन्देमातरम विरोधी कैसे हो सकते थे? आजादी के पश्चात अनेक  वर्षो तक रेडियो टीवी पर एक समय राष्ट्रगीत, एक समय राष्ट्रगान होता था! इस सेकुलर देश के, स्वयं को "हिन्दू बाई एक्सिडेंट" कहने वाले प्रथम प्रधानमंत्री से दूसरे व तीसरे प्रधानमंत्री तक के काल में इस देश में वन्देमातरम किसी को सांप्रदायिक नहीं लगा, तो फिर इन फतवों का कारण ?
  इस देश की मिटटी के प्रति समर्पण  फिर कैसे कुछ लोगो को सांप्रदायिक लगने लगा? वन्देमातरम हटाने की कुत्सित चालों से किसने अपने घटियापन का प्रमाण दिया? उस समय अपराधिक चुप्पी लगाने वालो को, क्यों हिन्दुत्व का समर्थन करने वालों से मानवाधिकार, लोकतंत्र व सेकुलरवाद संकट में दिखाई देने लगता है? हिन्दुत्व के प्रति तिरस्कार, कैसा सेकुलरवाद है?  जब कोई जेहाद या अन्य किसी नाम से मानवता के प्रति गहनतम अपराध करता है, तब भी मानवाधिकार कुम्भकरनी निद्रा से नहीं जागता? हिन्दू समाज में आस्था रखने वालों की आस्था पर जब भी प्रहार होता है, तब भी सता के मद में मदमस्त रहने वाले, कैसे, अनायास; हिन्दुत्व की रक्षा की आवाज सुनकर(भयभीत) तुरंत जाग जाते हैं? किन्तु उसके समर्थन में नहीं; भारतीय संस्कृति व हिन्दुत्व की आवाज उठाने वालों को खलनायक व अपराधी बताने वाले शब्द बाणों से चहुँ ओर से प्रहार शुरू कर देते हैं!
   अभी कुछ दिन पूर्व मंगलूर में पब की एक घटना पर एक पक्षिय वक्तव्यों, कटाक्षों, से उन्हें कहीं हिन्दुत्व का ठेकदार, कहीं संस्कृति के ठेकदार के रूप में, फांसीवादी असहिष्णु व गुंडा जैसे शब्दों से अलंकृत किया गया! इसलिए कि उन्हें पब में युवा युवतियों के मद्यपान व अश्लील हरकतों पर आपति थी? संभव है, इस पर दूसरे पक्ष ने (स्पष्टत: योवन व शराब की मस्ती के प्रकोप में) उतेजनापूर्ण प्रतिकार भी किया होगा? परिणामत दोनों पक्षों में हाथापाई? ताली दोनों हाथो से बजी होगी? एक को दोषी मान व दूसरे का पक्ष लेना क्या न्यायसंगत है? जिस अपरिपक्व आयु के बच्चों को कानून नौकरी, सम्पति, मान व विवाह का अधिकार नहीं देता;क्योंकि अपरिपक्व निर्णय घातक हो सकते हैं; आकर्षण को ही प्रेम समझने की नादानी उनके जीवन को अंधकारमय बना सकती है! उन्हें आयु के उस सर्वाधिक संवेदनशील मोड़ पर क्या दिशा दे रहें हैं, हम लोग?   जिस लोकतंत्र ने आधुनिकाओं को अपने ढंग से जीने का अधिकार दिया है, उसी लोकतंत्र ने इस देश की संस्कृति व परम्पराओं के दिवानो को उस की रक्षा के लिये विरोध करने का अधिकार भी दिया है! माना उन्हें जबरदस्ती का अधिकार नहीं है तो तुम्हे समाज के बीच  मान्यताओं,नैतिक मूल्यों को खंडित करने का अधिकार किसने दिया? किसी की भावनायों व आस्था  को ठेस पहुंचाने की आजादी, कौन सा सात्विक कार्य है?
गाँधी दर्शन- जिस गाँधी को इस देश की आजादी का पूरा श्रेय देकर व जिसके नाम से ६० वर्षों से उसके कथित वारिस इस देश का सता सुख भोग रहें है, उसकी बात तो मानेगे! उसने स्पष्ट कहा था 'आपको ऊपर से ठीक दिखने वाली इस दलील के भुलावे में नहीं आना चाहिये कि शराब बंदी जोर जबरदस्ती के आधार पर नहीं होनी चाहिये; और जो लोग शराब पीना चाहते हैं, उन्हें इसकी सुविधा मिलनी ही चाहिये! हम वैश्याल्यो को अपना व्यवसाय चलाने की अनुमति नहीं देते! इसी तरह हम चोरो को अपनी चोरी की प्रवृति पूरी करने की सुविधाए नहीं देते! मैं शराब को चोरी ओर व्याभिचार दोनों से ज्यादा निन्दनीय मानता हूँ!'
   इस बुराई को रोकने  के प्रयास में हाथापाई होने पर जैसी प्रतिक्रिया दिखाई जा रही है, वैसी उस बुराई को रोकने में क्यों नहीं दिखाई गयी! इस बुराई को रोकने का प्रयास करने पर आज गाँधी को भी ये आधुनिकतावादी इसी आधार पर प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी व फासिस्ट घोषित कर देते?
   इस मदिरापान से विश्व में मार्ग दुर्घटनाएँ होती हैं! मदिरापान का दुष्परिणाम तो महिलाओं को ही सर्वाधिक झेलना पड़ता है! इसी कारण महिलाएं इन दुकानों का प्रबल विरोध भी करती हैं! किन्तु जब प्रतिरोध भारतीय संस्कृति के समर्थको ने किया है तो उसमें गतिरोध पैदा करने की संकुचित व विकृत मानसिकता, हमे अपसंस्कृति व अनुचित के पक्ष में खड़ा कर, अनिष्ट की आशंका खड़ी करती है ??
समस्या व परिणाम- किन्तु हमारे प्रगतिशील, आधुनिकता के पाश्चात्यानुगामी गोरो की काली संताने अपने काले कर्मो को घर की चारदीवारी में नहीं पशुवत बीच सड़क करने के हठ को, क्यों अपना अधिकार समझते हैं? पूरे प्रकरण को हाथापाई के अपराध पर केन्द्रित कर, हिन्दू विरोधी प्रलाप करने वाले, क्यों सभ्य समाज में सामाजिक व नैतिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाने व अपसंस्कृति फैलाने के मंसूबों का समर्थन करने में संकोच नहीं करते ? फिर उनके साथ में मंगलूर जैसी घटना होने पर सभी कथित मानवतावादी उनके समर्थन में हिन्दुत्व को गाली देकर क्या यही प्रमाण देना चाहते हैं: कि १) भारत में आजादी का पश्चात मैकाले के सपनो को पहले से भी तीव्रता से पूरा किया जा सकता है?
   २) जिस संस्कृति को सहस्त्र वर्ष के अन्धकार युग में भी शत्रुओ द्वारा नहीं मिटाया जा सका व आजादी के संघर्ष में प्रेरणा हेतु देश के दीवाने गाते थे "यूनान मिश्र रोमा सब मिट गए जहाँ से, कुछ बात है कि अब तब बाकी निशान हमारा", आजाद भारत में उसके इस गौरव को खंडित करने व उसे ही दुर्लक्ष्य करने की आजादी, इस देश के शत्रुओं को उपलब्ध हो? क्या लोकतंत्र, समानता, सहिष्णुता के नाम पर ये छूट हमारी अस्मिता से खिलवाड नहीं??
   केवल सता में बने रहना या सीमा की अधूरी,अनिश्चित सुरक्षा ही राष्ट्रिय अस्मिता नहीं है! जिस देश की संस्कृति नष्ट हो जाती है, रोम व यूनान की भांति मिट जाता है! हमारी तो सीमायें भी देश के शत्रुओं के लिये खुली हैं क्यों? हमारे देश के कुछ भागो पर ३ पडोसी देश अपना अधिकार कैसे समझते हैं? वहां से कुछ लोग कैसे हमारी छाती पर प्रहार कर चले जाते हैं? हम चिल्लाते रह जाते हैं?   देश की संस्कृति मूल्यों मान्यताओ सहित इतिहास को तोड मरोड कर हमारे गौरव को धवंस्त किया जाता है! सरकार की ओर से उसे बचाने का कोई प्रयास नहीं किया जाता! क्योंकि हम धर्मनिर्पेक्ष है? फिर, कोई अन्य बचाने का प्रयास करे तो उसे कानून हाथ में लेने का अपराधी माना जाता है? इस देश के मूल्यों आदर्शो की रक्षा न करेंगे न करने देंगे? फिर भी हम कहते हैं कि सब धर्मावलम्बियों को अपने धर्म का पालन करने, उसकी रक्षा करनें का अधिकार है, अपनी बात कहने का अधिकार है? कैसा कानून कैसा अधिकार व कैसी ये सरकार?
  जरा सोचे- व्यवहार में देखे तो भारत व भारतीयता के उन तत्वों को दुर्लक्ष्य  किया जाता है, जिनका संबध भारतीय संस्कृति, आदर्शो, मूल्यों व परम्पराओं से है! क्योंकि वे हिंदुत्व या सनातन परम्परा से जुड़े हैं? उसके बारे में भ्रम फैलाना, अपमानित व तिरस्कृत करना, हमारा सेकुलर सिद्ध अधिकार है?
   इस अधिकार का पालन हर स्तर पर होना ही चाहिये? किन्तु उन मूल्यों की स्पर्धा में जो भी आए उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दिया जायेगा? हिन्दू हो तो, इस सब को सहन भी करो और असहिष्णु भी कहलाओ? सहस्त्र वर्ष के अंधकार में भी संस्कारो की रक्षा करने में सफल विश्व गुरु, दिन निकला तो एक शतक भी नहीं लगा पाया और मिट गया ! अगली पीडी की वसीयत यही लिखेंगे हम लोग?
   इस विडंबना व विलक्षण तंत्र के कारण हम संस्कृतिविहीन व अपसंस्कृति के अभिशप्त चेहरे को दर्पण में निहारे तो कैसे पहचानेगे? क्या परिचय होगा हमारा?..
           तिलक राज रेलन संपादक युग दर्पण (9911111611), (9540007993).

Wednesday, January 20, 2010

भगवान् शंकर का सन्देश

- मेरी बंद आंखे देखकर, मेरी सादगीपे मचलते हुए, अपनी चतुराई पे अकड़ने वालों. मेरे क्रोध के तांडव से परिचय नहीं जब तक, कुछ भी कर डालो. फिर न कहना के बताया न था.

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Saturday, January 2, 2010

History of "Vande Mataram"


History of Flip-Flops on the issue of
"Vande Mataram" "वन्दे मातरम"
"Vande Mataram" was the national cry for freedom from British rule during the freedom movement. Large rallies, fermenting initially in Bengal, in the major metropolis of Calcutta, would work themselves up into a patriotic fervour by shouting the slogan "Vande Mataram", or "Hail to the Mother(land)!". The British, fearful of the potential danger of an incited Indian populace, at one point banned the utterance of the motto in public forums, and imprisoned many freedom fighters for disobeying the proscription. Rabindranath Tagore sang Vande Mataram in 1896 at the Calcutta Congress Session held at Beadon Square. --(text imported)
The controversy becomes more complex in the light of Rabindranath Tagore's rejection of the song as one that would unite all communities in India. In his letter to Subhash Chandra Bose (1937), Rabindranath wrote:
     "The core of Vande Mataram is a hymn to goddess Durga: this is so plain that there can be no debate about it. Of course Bankimchandra does show Durga to be inseparably united with Bengal in the end, but no Mussulman [Muslim] can be expected patriotically to worship the ten-handed deity as 'Swadesh' [the nation]. This year many of the special [Durga] Puja numbers of our magazines have quoted verses from Vande Mataram - proof that the editors take the song to be a hymn to Durga.  (Ironically so called Great Poet/ Writer unable to link sentiments of other Poet, comments in a casual way, whereas he himself writes to paise AdhinAyak, British Rulers. this shows his Bows to AdhnAyakVAd.)

   Rajendra Prasad, who was presiding the Constituent Assembly on January 24, 1950, made the following statement which was also adopted as the final decision on the issue:
   The composition consisting of words and music known as Jana Gana Mana is the National Anthem of India, subject to such alterations as the Government may authorise as occasion arises, and the song Vande Mataram, which has played a historic part in the struggle for Indian freedom, shall be honored equally with Jana Gana Mana and shall have equal status with it. (Applause) I hope this will satisfy members. (Constituent Assembly of India, Vol. XII, 24-1-1950)(In a hope to satisfy afew)[edit]
Muslim institutions and Vande Mataram
   Muslim institutions in general, see Vande Mataram in a negative light.[5] Though a number of Muslim organizations and individuals have opposed Vande Mataram being used as a "national song" of India, citing many religious reasons, some Muslim personalities have admired and even praised Vande Mataram as the "National Song of India" . Arif Mohammed Khan, a former Union Minister in the Rajiv Gandhi government, wrote an Urdu translation of Vande Mataram which starts as Tasleemat, maan tasleemat.[13]
   All India Sunni Ulema Board on Sept 6, 2006, issued a fatwa that the Muslims can sing the first two verses of the song.The Board president Moulana Mufti Syed Shah Badruddin Qadri Aljeelani said that "If you bow at the feet of your mother with respect, it is not shirk but only respect."[14] Shia scholar and All India Muslim Personal Law Board vice-president Maulana Kalbe Sadiq stated on Sept 5, 2006 that scholars need to examine the term "vande." He asked, "Does it mean salutation or worship?"[15]
Christian institutions and Vande Mataram
   Fr. Cyprian Kullu from Jharkhand stated in an interview with AsiaNews: "The song is a part of our history and national festivity and religion should not be dragged into such mundane things. The Vande Mataram is simply a national song without any connotation that could violate the tenets of any religion."[16] However, some Christian institutions such as Our Lady of Fatima Convent School in Patiala did not sing the song on its 100th anniversary as mandated by the state.[17] Christians make a distinction between "veneration" and "worship," and even though the song falls into neither of these categories, some Christians may have declined to sing the national song because of their understanding of its intention and content.
Former Union minister Arif Mohammad Khan wondered about the "provocation" for Deoband's fatwa, stressing that the (so called) objectionable stanzas in the classic, which had idolatrous references to Bharat Mata, do not form part of the national song.
   In the light of all above it could be understood, Deoband's fatwa, and its supporters are atleast misconcieved or narrow minded, if not antiNational as they claim. Hindu tendency to accept a thing when equated to God /His Wish. prompted for third stanza, taken as worshiping Idol as a theme of the song. It is Basically paying highest regards to the Country= Mother. A narrow minded people can't understand sentiment and start crying. Support it for Votebank, is more narrowminded. Anybody who loves Country First can't accept/Tolerate such nonsence nuisence. देश की मिटटी सबसे प्यारी, सब दुनिया से न्यारी है. तिलक Editor युगदर्पण.
YugDarpan is National Hindi weekly, spread in many states Empanelled with Haryana Punjab Govt.Planed to launch Editions in many states shortly,followed by language Editions.
अंग्रेजी का नव वर्ष भले ही मनाओ,उमंग उत्साह चाहे जितना दिखाओ;
विक्रमी संवत को नहीं भूल जाएँ,चैत्र के नव रात्रे जब जब आयें;
घर घर सजाएँ उमंग के दीपक जलाएं,खुशियों से ब्रहमांड तक को महकाएं.
अंग्रेजी नव वर्ष 2010 की शुभ कामनाएं. तिलक संपादक युगदर्पण.
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09911111611, 09540007993, -7991, 09717638807.

vandey Maatram Maatri Bhoomi ki poojaa Hai

  वन्देमातरम् मातृभूमि की पूजा है, इसका विरोध राष्ट्रविरोधी मानसिकता का परिचायक है.  राजनीति या किसीभी कारण इसे स्वीकारना, समर्थन देना इससे भी बड़ा राष्ट्रद्रोह है - तिलक ( वन्देमातरम )
  भगवान् शंकर का सन्देश- मेरी बंद आंखे देखकर, मेरी सादगीपे मचलते हुए, अपनी चतुराई पे अकड़ने वालों.  मेरे क्रोध के तांडव से परिचय नहीं जब तक, कुछ भी कर डालो. फिर न कहना के बताया न था.