ब्लॉगवाणी से अनुरोध : असामाजिक तत्वों का बहिष्कार करे...
कुछ असामाजिक तत्व, (इस्लाम के ठेकेदार ब्लोगर) जो ब्लॉगवाणी के सदस्य भी हैं... बेहद बेहूदा कमेन्ट कर रहे हैं...
ब्लॉगवाणी से हमारा अनुरोध है कि ऐसे तत्वों को बाहर का रास्ता दिखाए...
साथ ही अपने भाइयों और बहनों से अनुरोध है कि वो भी इन ग़द्दार और असभ्य लोगों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाएं...
बचपन से हमने देखा... हमारी अम्मी कभी घर से बाहर नहीं निकलती थीं... घर का सारा सामान अब्बू ही लाते थे... कपड़े भी... अब्बू जो ले आए अम्मी ने वही पहने... अपनी मर्ज़ी का तो कोई सवाल ही नहीं... अगर खुद बाज़ार जाती तो अपनी पसंद से लातीं भी... जब कभी ननिहाल जाना होता तभी घर से बाहर पैर निकालतीं... कई-कई साल घर की चुखत से बाहर क़दम न रखतीं...
हम बड़े हुए तो हमने कहा कि बहुत हो चुका... अब अम्मी खुद अपनी मर्ज़ी से कपड़े खरीदेंगी... घर की चहारदीवारी से बाहर की दुनिया देखेंगी... अम्मी ना-नुकर के बाद मान गईं, लेकिन बुर्क़े के बिना बाहर जाने से मना कर दिया... हमने बहुत समझाया... हमारी दादी जान ने भी कहा कि बच्चे कहते हैं तो मान ले उनकी बात... हालांकि हमारी दादी जान भी बुर्क़ा ओढ़ती थीं, सफ़ेद बुर्क़ा... और सफ़ेद बुर्क़ा ओढ़कर वो बिलकुल 'भूत' जैसी लगती थीं...
हमने दादी से पूछा कि आप बुर्क़ा क्यों ओढ़ती हैं...?
उन्होंने कहा कि सभी ओढ़ते हैं, इसलिए ओढ़ती हूं...
हमने कहा- क्या आपको बुर्क़ा ओढ़ना अच्छा लगता है...?
कहने लगीं, बिलकुल नहीं...
यही जवाब हमारी अम्मी का था...
हमने अम्मी से पूछा- क्या अब्बू या दादा जान बुर्क़ा ओढ़ने को कहते थे...
उन्होंने कहा- कभी भी न तो हमारे अब्बू ने अम्मी को बुर्क़ा ओढ़ने को कहा और न ही दादा ने... बस वो पहले से ओढ़ती रहीं हैं इसलिए ही ओढती हैं... ख़ैर, अब तो दादा ज़िंदा भी नहीं थे...
अम्मी ने बताया कि हमारे नाना जान बुर्क़े को पसंद नहीं करते थे... वो मुंबई में रहते थे... वो चाहते थे कि हमारी नानी भी बुर्क़ा न ओढें... उन्हें साड़ियां बहुत पसंद थीं... नानी जान के लिए क़ीमती साड़ियां लाते... लेकिन नानी जान बहुत ही रूढ़िवादी थीं... इसलिए वो नाना जान के हिसाब से कभी नहीं रहीं... दोनों के विचारों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ था...
नाना जान अम्मी के लिए भी साड़ियां लाते थे... लेकिन अम्मी ने कभी साड़ी नहीं पहनी... क्योंकि उन्हें साड़ी पहननी नहीं आती थी और कहती थीं कि अब झिझक होती है...
अम्मी हमसे कहतीं- आज तेरे नाना ज़िंदा होते तो तुझे देखकर बहुत ख़ुश होते...
हमारी अम्मी और दादी दोनों का बुर्क़ा छूट गया था...
हमारी छोटी ख़ाला जान (मौसी) को बुर्क़ा बिलकुल पसंद नहीं था... लेकिन उन्हें मजबूरन ओढ़ना पड़ता था... घर में नानी जान का हुक्म चलता था... हमारे मामा भी कम कठमुल्ले नहीं हैं...
जब ख़ाला जान हमारे घर आईं तो हमने उनका बुर्क़ा छुपा दिया और बिना बुर्क़े के ही उन्हें शहर घुमाया... अल्लाह का करम है कि ख़ाला जान का निकाह किसी कठमुल्ले से न होकर 'इंसान' के साथ हुआ... ख़ाला जान की ससुराल में कोई भी महिला बुर्क़ा नहीं ओढ़ती...
जब हमारी नानी हमारे घर आईं तो हमने उनका बुर्क़ा भी छुड़वा दिया...
वो कहने लगीं- अगर अपने मियां की बात मान लेती तो कितना अच्छा होता... शायद यह ख़ुशी उनके नसीब में ही नहीं थी...
हमारे भाई की शादी हुई तो दुल्हन के कपड़ों के साथ हमने बुर्क़ा नहीं भेजा... जबकि दुल्हन की बड़ी बहन की ससुराल से बुर्क़ा आया...(हमारी होने वाली भाभी और उनकी बड़ी बहन का निकाह एक ही दिन हुआ था...)
औरतों ने हंगामा कर दिया... कि कपड़े पूरे नहीं आए... लड़की के भाई हमारे घर आए...
हमने कहा कि हमें अपने घर की बहु को बुर्क़ा नहीं ओढ़वाना... पहले तो उन्होंने ऐतराज़ जताया, लेकिन बाद में मान गए...
हमारा मानना है कि हर कुप्रथा के खात्मे के लिए अपने घर से ही पहल करनी चाहिए...
घर के बाद ख़ानदान और फिर समाज की बारी आती है...
कुप्रथा व अनुचित व्यवहार को त्याग कर ही संस्कृति जिवंत हो उठेगी संस्कृति में ही हमारे प्राण है! भारतीय संस्कृति की रक्षा हमारा दायित्व -तिलक
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